माँ दुर्गा इस लोक में धर्म को विजय बनाने वाली शक्ति का प्रतीक है। दुर्गा शब्द बना है संस्कृत के 'दुर्ग' शब्द से, जिसका मतलब होता है ऐसा सुरक्षित किला जहां किसी का भी पहुंचना पूरी तरह मुश्किल हो। इन्हें लोग जन्मदात्री भी कहते है, जो मन के दुष्ट विचारों और शक्तियों को मिटाकर मानव जाति को राक्षसी शक्तियों से बचाती हैं। इनकी दस भुजाएं भगवान विष्णु के 9 अवतारों की संगठित शक्ति का प्रतीक है। ये अनेक नामों व गुणों वाली श्रेष्ठ देवी हैं। यहाँ ऐसी ही गुणों वाली Shri Durga Chalisa डाउनलोड करने के लिए दिया जा रहा है - DOWNLOAD
पहली बार माँ दुर्गा का जन्म दक्ष प्रजापति की बेटी 'सती' के रूप में हुआ था। दूसरी बार उन्होंने देवी पार्वती बन कर पुनर्जन्म लिया।
व्यवहार के संबंधित एक अनुच्छेद (ऊपर दी गई चालीसा से संबंधित नहीं) : बहुत बार हम किसी सामान्य सी बात को बहुत बड़ी एवं जटिल समस्या मानने लगते है और मन में उसकी तूल देते रहते हैं। हम उस समस्या का जिनको कारण मान लेते है उनसे हम मनमुटाव कर व्यवहार दूभर कर लेते है, उनको भय देते हैं तथा उनसे स्वयं भयभीत रहते हैं। बड़ी-से-बड़ी समस्या भी यदि दोनों पक्षों में समझदारी हो तो सुलझाई जा सकती है। यदि एक तरफ से समझदारी है और दूसरी तरफ से नहीं है तो सुलझा पाना कठिन है। ऐसी अवस्था में समझदार आदमी का काम है कि वह सहन रखकर शांत भाव से समस्या का सामना करें।
Durga Chalisa से जुड़े ये PDF भी download करें-
गोस्वामी जी का यह वचन अत्यंत आदरणीय है कि लड़ने की अपेक्षा समझौता करना अच्छा है, जीतने की चेष्टा से हार मान लेना अच्छा है और दूसरे को ठगने की अपेक्षा स्वयं ठगा जाना अच्छा है। यदि स्वयं ठगा गये तो कुछ अर्थ की हानि होगी; परन्तु यदि तुमने दूसरे को ठगा तो तुम्हारी आध्यात्मिक हानि हुई जिसका परिणाम घोर पतन है।
पिता-पुत्र, भाई-भाई एक दूसरे के दोषों और गलतियों पर नजर रखते हैं, इसलिए परस्पर व्यवहार बिगड़ता चला जाता है व्यवहार तभी सुन्दर बन सकता है जब दूसरे के सदगुण और अपनी बुराइयों को देखा जाये। यदि हम दूसरे की बुराइयों को देखें भी तो उन्हें दूर करने में हम असमर्थ हैं; परन्तु हम अपनी बुराइयों को देखकर निकालने में स्वतंत्र और समर्थ है। हम संसार भर में चाम बिछाकर उस पर आगे बढ़ना चाहे तो बहुत मुश्किल है, परन्तु अपने पैरों में जूती पहन लें तो हमारे लिए पूरे संसार में मानो चाम बिछाया है; दुनिया भर को सुधारकर हम अपने सुधरना चाहे तो असम्भव है, परन्तु दुनिया की बुराइयों पर दृष्टि न ले जाकर हम अपना सुधार करना चाहें तो सरल है और यही सुधार का असली रास्ता है।
व्यवहार के बीच होकर गुजरे बिना किसी का जीवन निभ नहीं सकता और इसी व्यवहार में मनुष्य बंधकर परतंत्र हो जाता है। अतएव व्यवहार में कुशलता प्राप्त करने के लिए कला सीखनी चाहिए। मनुष्य किसी व्यक्ति से व्यवहार न रखते हुए अपनी जीवन-गाड़ी नहीं चला सकता लेकिन व्यक्तियों के व्यवहार में ही सावधान न रहने से राग-द्वेष के प्रपंच आते हैं। इसलिए मनुष्यों से व्यवहार तो रखना है, परन्तु यह सावधानी बरतनी है कि उनसे राग-द्वेष न करे।